जिधर भी देखती हूँ

जिधर भी देखती हूँ तन्हाई नज़र आती है
आपके इंतज़ार में हर शाम गुज़र जाती है

मैं कैसे करूं गिला दिल के ज़ख्मों से हुज़ूर
आंसू छलकते हैं मेरी सूरत निखर जाती है

तोड़ दिए हैं मैंने अपने घर के सारे आईने
मेरी रूह मेरा ही चेहरा देख के डर जाती है

रो के हलके हो लेते हैं ज़रा से तेरी याद में. ...
ज़रा सी ना-मुरादों कि तबियत सुधर जाती है

असर करती यकीनन ग़र छू जाती उनके दिल को लेकिन
अफ़सोस के आह मेरी फ़िज़ाओं ही में बिखर जाती है

मैकदे में जब भी ज़िक्र आता है तेरे नाम का
शाम कि पी हुई सर ए-शाम ही उतर जाती है

कभी आ के मेरे ज़ख्मों से मुकाबला तो कर
ए ख़ुशी तू मुहँ छुप्पा के किधर जाती है

तुझे इन्ही काँटों पे चल के जान होगा
उनके घर को बस यही ऐक रहगुज़र जाती है .......

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