क्या लिखूँ..??

कुछ जीत लिखूँ या हार लिखूँ..
या दिल का सारा प्यार लिखूँ..

कुछ अपनो के ज़ाज़बात लिखूँ या सापनो की सौगात लिखूँ..
मै खिलता सुरज आज लिखूँ या चेहरा चाँद गुलाब लिखूँ..

वो डूबते सुरज को देखूँ या उगते फूल की सांस लिखूँ..
वो पल मे बीते साल लिखूँ या सादियो लम्बी रात लिखूँ..

सागर सा गहरा हो जाऊं या अम्बर का विस्तार लिखूँ..
मै तुमको अपने पास लिखूँ या दूरी का ऐहसास लिखूँ..

वो पहली -पहली प्यास लिखूँ या निश्छल पहला प्यार लिखूँ..
सावन की बारिश मेँ भीगूँ या मैं आंखों की बरसात लिखूँ..

कुछ जीत लिखूँ या हार लिखूँ..
या दिल का सारा प्यार लिखूँ..

नया मनुष्य

ओशो, उद्धरण : फ़िलॉसफिया पैरेनिस

आनंदित हों कि पुराना मर रहा है... नया मनुष्य कोई युद्धक्षेत्र नहीं है, विभाजित व्यक्तित्व नहीं है बल्कि एक अविभाज्य मानव की प्रतिमा है, अद्वितीय, जीवन के साथ समग्रता से सहक्रियाशील। नया मनुष्य मूर्तरूप है अधिक सक्षम, रूपांतरित व्यक्तित्व का, ब्रह्मांड में नये ढंग से होने का, सत्य को एक गुणात्मक भेद से देखने और अनुभव करने का। तो कृपा करें और अतीत के बीत जाने का शोक न मनाएं। आनंदित हों कि पुराना मर रहा है, रात्रि विदा हो रही है और क्षितिज पर पौ फटने लगी है। मैं प्रसन्न हूं, अत्यंत प्रसन्न हूं कि पारंपरिक मनुष्य विदा हो रहा है--कि पुराने चर्च खंडहर बन रहे हैं, कि पुराने मंदिर सूने पड़े हैं। मुझे असीम प्रसन्नता है कि पुरानी नैतिकता धरती पर चारों खाने चित्त पड़ी है। यह एक महान संकट की घड़ी है। यदि हम चुनौती स्वीकार कर लें तो यह एक अवसर है नये को निर्मित करने का।

अतीत में इतना उपयुक्त समय कभी भी नहीं था। तुम अत्यंत सुंदरतम युग में रह रहे हो, क्योंकि पुराना विदा हो रहा है, या विदा हो गया है, और एक अराजकता पैदा हो गयी है। और अराजकता में से ही महान सितारों का जन्म होता है। तुम्हारे पास एक सुअवसर है पुनः नये ब्रह्मांड को निर्मित करने का। यह एक अवसर है जो दुर्लभ है, कभी-कभी आता है। तुम सौभाग्यशाली हो कि ऐसे संकट के समय मौजूद हो। इस अवसर को नये मनुष्य के निर्माण करने में प्रयोग कर लो। और अभिनव मनुष्य को निर्मित करने के लिए तुम्हें स्वयं से शुरू करना होगा। नया मनुष्य सब कुछ एक साथ होगा ः रहस्यदर्शी, कवि और वैज्ञानिक। वह जीवन को पुराने, सड़े-गले विभाजनों से नहीं देखेगा। वह एक रहस्यदर्शी होगा, क्योंकि उसे परमात्मा की उपस्थिति महसूस होगी। वह एक कवि होगा क्योंकि वह परमात्मा की उपस्थिति का महोत्सव मनाएगा। और वह वैज्ञानिक होगा क्योंकि इस उपस्थिति की जांच वह वैज्ञानिक कार्यप्रणाली से करेगा।

जब मनुष्य एक साथ यह तीनों है तो वह पूर्ण है। पुण्यात्मा की मेरी यही धारणा है। पुराना व्यक्ति दमनकारी था, आक्रामक था। पुराने व्यक्ति का आक्रामक होना स्वाभाविक था क्योंकि दमन हमेशा आक्रमण लाता है। अभिनव मनुष्य सहज होगा, सृजनात्मक होगा। पुराना व्यक्ति सिद्धांतों में जीया। नया मनुष्य सिद्धांतों में नहीं जीएगा, नैतिकताओं में नहीं जीएगा, वह सचेतनता से जीएगा। अभिनव मनुष्य बोधपूर्वक जीएगा। नया मनुष्य उत्तरदायी होगा--उत्तरदायी स्वयं को और अस्तित्व को। अभिनव मनुष्य पुराने अर्थों में नैतिक नहीं होगा, वह नीतिनिरपेक्ष होगा। नया मनुष्य अपने साथ एक नया जगत लेकर आएगा। अभी नया मनुष्य एक अल्पसंख्यक रूपांतरित वर्ग ही है। लेकिन वह नयी सभ्यता का संवाहक है, बीज है। उसे सहयोग दो। छत पर चढ़कर उसके आगमन की घोषणा करो ः यही मेरा संदेश है तुम्हें।

नया मनुष्य मुक्त है और ईमानदार है। उसका सत्य दर्पण जैसा है, प्रामाणिक है, स्वयं को प्रकट करने वाला है। वह पाखंडी नहीं होगा। वह उद्देश्यों के लिए नहीं जीएगा ः वह जीएगा अभी, यहीं। वह केवल एक ही समय से परिचित होगा, अभी, और एक ही स्थान, यहां। और उस उपस्थिति में जान पाएगा कि परमात्मा क्या है। आनंदित होओ। अभिनव मानव आ रहा है, पुराना विदा हो रहा है। पुराना पहले ही सलीब पर लटका है, और नये का क्षितिज पर पदार्पण हो चुका है। आनंदित होओ! मैं बार-बार कहता हूं ः आनंदित होओ

उद्धरण : फ़िलॉसफिया पैरेनिस

मंत्र: मन का खेल

ओशो, अष्टावघ महागीता, प्रवचन 31

मंत्र तो मन का ही खेल है। मंत्र शब्द का भी यही अर्थ है: मन का जाल, मन का फैलाव। मंत्र से मुक्त होना है, क्योंकि मन से मुक्त होना है। मन न रहेगा तो मंत्र को सम्हालोगे कहां? और अगर मंत्र को सम्हालना है तो मन को बचाये रखना होगा। निश्चय ही मैंने तुम्हें कोई मंत्र नहीं दिया। नहीं चाहता कि तुम्हारा मन बचे। तुमसे मंत्र छीन रहा हूं। तुम्हारे पास वैसे ही मंत्र बहुत हैं। तुम्हारे पास मंत्रों का तो बड़ा संग्रह है। वही तो तुम्हारा सारा अतीत है। बहुत तुमने सीखा। बहुत तुमने ज्ञान अर्जित किया। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई जैन है, कोई ईसाई है। किसी का मंत्र कुरान में है, किसी का मंत्र वेद में है। कोई ऐसा मानता, कोई वैसा मानता। मेरी सारी चेष्टा इतनी ही है कि तुम्हारी सारी मान्यताओं से तुम्हारी मुक्ति हो जाए। तुम न हिंदू रहो, न मुसलमान, न ईसाई। न वेद पर तुम्हारी पकड़ रहे, न कुरान पर। तुम्हारे हाथ खाली हो जायें। तुम्हारे खाली हाथ में ही परमात्मा बरसेगा। रिक्त, शून्य चित्त में ही आगमन होता परम का; द्वार खुलते हैं। तुम मंदिर हो। तुम खाली भर हो जाओ तो प्रभु आ जाए। उसे जगह दो। थोड़ा स्थान बनाओ।

अभी तुम्हारा घर बहुत भरा है--कूड़े-कर्कट से, अंगड़-खंगड़ से। तुम भरते ही चले जाते हो। परमात्मा आना भी चाहे तो तुम्हारे भीतर अवकाश कहां? किरण उतरनी भी चाहे तो जगह कहां? तुम भरे हो। भरा होना ही तुम्हारा दुख है। खाली हो जाओ! यही महामंत्र है। इसलिए मैंने तुम्हें कोई मंत्र नहीं दिया, क्योंकि मैं तुम्हें किसी मंत्र से भरना नहीं चाहता। मन से ही मुक्त होना है। लेकिन अगर मंत्र शब्द से तुम्हें बहुत प्रेम हो और बिना मंत्र के तुम्हें अड़चन होती हो, तो इसे ही तुम बता दिया करो कि मन से खाली हो जाने का सूत्र दिया है; साक्षी होने का सूत्र दिया है। कुछ रटने से थोड़े ही होगा कि तुम राम-राम, राम-राम दोहराते रहो तो कुछ हो जाएगा। कितने तो हैं दोहराने वाले! सदियों से दोहरा रहे हैं। उनके दोहराने से कुछ भी नहीं हुआ। दोहराओगे कहां से? दोहराना तो मन के ही यंत्र में घटता है। चाहे जोर से दोहराओ, चाहे धीरे दोहराओ--दोहराता तो मन है। हर दोहराने में मन ही मजबूत होता है। क्योंकि जिसका तुम प्रयोग करते हो वही शक्तिवान हो जाता है।

मैं तुम्हें कह रहा हूं कि साक्षी बनो। ये मन की जो प्रक्रियाएं हैं, ये जो मन की तरंगें हैं, तुम इनके द्रष्टा बनो। तुम इन्हें बस देखो। तुम इसमें से कुछ भी चुनो मत। कोई फिल्मी गीत गुनगुना रहा है, तो तुम कहते: अधार्मिक; और कोई भजन गा रहा है तो तुम कहते हो: धार्मिक! दोनों मन में हैं--दोनों अधार्मिक। मन में होना अधर्म में होना है। उस तीसरी बात को सोचो जरा। खड़े हो, मन चाहे फिल्मी गीत गुनगुनाए और चाहे राम-कथा--तुम द्रष्टा हो। तुम सुनते हो, देखते हो, तुम तादात्म्य नहीं बनाते। तुम मन के साथ जुड़ नहीं जाते। तुम्हारी दूरी, तुम्हारी असंगता कायम रहती है। तुम देखते हो मन को ऐसे ही जैसे कोई राह के किनारे खड़े हुए, चलते हुए लोगों को देखे: साइकिलें, गाड़ियां, हाथी-घोड़े, कारें, ट्रक, बसें...। तुम राह के किनारे खड़े देख रहे हो। तुम द्रष्टा हो। अष्टावक्र का भी सारा सार एक शब्द में है--साक्षी। मंत्र तो बोलते ही तुम कर्ता हो जाओगे। बड़ा सूक्ष्म कर्तृत्व है, लेकिन है तो! मंत्र पढ़ोगे, प्रार्थना करोगे, पूजा करोगे--कर्ता हो जाओगे। बात थोड़ी बारीक है। थोड़ा प्रयोग करोगे तो ही स्वाद आना शुरू होगा।

जो चल रहा है, जो हो रहा है, वही काफी है; अब और मंत्र जोड़ने से कुछ अर्थ नहीं है। इसी में जागो। इसको ही देखने वाले हो जाओ। इससे संबंध तोड़ लो। थोड़ी दूरी, थोड़ा अलगाव, थोड़ा फासला पैदा कर लो। इस फासले में ही तुम देखोगे मन मरने लगा। जितना बड़ा फासला उतना ही मन का जीना मुश्किल हो जाता है। जब तुम मन का प्रयोग नहीं करते तो मन को ऊर्जा नहीं मिलती। जब तुम मन का सहयोग नहीं करते तब तुम्हारी शक्ति मन में नहीं डाली जाती। मन धीरे-धीरे सिकुड़ने लगता है। यह तुम्हारी शक्ति से मन फूला है, फला है। तुम्हीं इसे पीछे से सहारा दिये हो। एक हाथ से सहारा देते हो, दूसरे हाथ से कहते हो: कैसे छुटकारा हो इस दुख से? इस नर्क से? तुम सहारा देना बंद कर दो, इतना ही साक्षी का अर्थ है। मन को चलने दो अपने से, कितनी देर चलता है? जैसे कोई साइकिल चलाता है, तो पैडल मारता तो साइकिल चलती है। साइकिल थोड़े ही चलती है; वह जो साइकिल पर बैठा है, वही चलता है। साइकिल को सहारा देता जाता है, साइकिल भागी चली जाती है। तुम पैडल मारना बंद कर दो, फिर देखें साइकिल कितनी देर चलती है! थोड़ी-बहुत चल जाए, दस-पचास कदम, पुरानी दी गयी ऊर्जा के आधार पर; लेकिन ज्यादा देर न चल पाएगी, रुक जाएगी। ऐसा ही मन है। मंत्र का तो अर्थ हुआ पैडल मारे ही जाओगे। पहले भजन या फिल्म का गीत गुनगुना रहे थे, अब तुमको किसी ने मंत्र पकड़ा दिया--दोहराओ ओम, राम--उसे दोहराने लगे, दोहराना जारी रहा। पैडल तुम मारते ही चले जाते हो।

प्रक्रिया में जुड़ जाना मन की, मन को बल देना है।

तो अगर तुम्हें मंत्र शब्द बहुत प्रिय हो तो यही तुम्हारा मंत्र है, महामंत्र, कि मन से पार हो कर साक्षी बन जाना है।

धुँधली हुई दिशाएँ

धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है,
मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है?
दाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे,
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे
प्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँ
चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ

बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है,
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है?
मँझदार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश रहा है या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा,
भगवान, इस तरी को भरमा दे अँधेरा
तमवेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ
ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ

आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है,
बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है,
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ डेर हो रहा है,
है रो रही जवानी, अँधेर हो रहा है!
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है,
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है
पंचास्यनाद भीषण, विकराल माँगता हूँ
जड़ताविनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ

मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है,
अरमानआरज़ू की लाशें निकल रही हैं
भीगीखुशी पलों में रातें गुज़ारते हैं,
सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं,
इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे,
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ

आँसूभरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे,
मेरे शमशान में श्रंगी जरा बजा दे
फिर एक तीर सीनों के आरपार कर दे,
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नयी दे,
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ
बेचैन ज़िन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ

ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे,
जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे,
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे
हम दे चुके लहु हैं, तू देवता विभा दे,
अपने अनलविशिख से आकाश जगमगा दे
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ
तेरी दया विपद् में भगवान माँगता हूँ