सारे कमरे बांट लिए ..



सारे कमरे बांट लिए हैं बेटों ने बटवारे में।
अब्बा-अम्मा का बिस्तर अब लगता है ओसारे में॥

बिजली के बिल की तानें तो बन कर कहर टूटती हैं।
रातें उनकी जगते-जगते कटती हैं अंधियारे में॥

बेटों के सर बीवी-बच्चों की भी जिम्मेदारी है।
किसको फुर्सत सोचे अम्मा-अब्बा जी के बारे में॥

जाने कितने राज छुपे हैं दिल के कोनों-खदरों में।
जाने कितने दर्द बह गए हैं आंसू के धारे में॥

शाहिद अब तो घर के ऊपर उनका ही अधिकार नहीं।
जिनका खून-पसीना शामिल है इस घर के गारे में॥


शाहिद वारसी

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला - रचनाकर्म

नई दिल्ली। फुटपाथ पर सर्दियों में ठिठुरती भिखारिन को पशमीने का शाल ओढा देना, गंतव्य तक पहुंचकर रिक्शे वाले को कभी दस गुना किराया देना तो कभी झन्नाटेदार थप्पड जड देना, जेठ की भरी दोपहर में मजदूर को चीनी का शरबत पिलाना।

ये किस्से किसी विक्षिप्त व्यक्ति की जीवनचर्या का हिस्सा नहीं अपितु हिंदी साहित्य में छायावाद की स्वछंदतावादी विचारधारा के प्रणेता सूर्यकांत त्रिपाठी निराला से जुडे हैं। इस तरह के न जाने कितने किस्से इलाहाबाद के लोगों के मुंह से सुनने को मिल जाएंगे। इलाहाबाद के दारागंज इलाके में निराला ने अपने रचनाकर्म का स्वर्णिम दौर गुजारा था।

मैदनीपुर बंगाल में 1857 को जन्मे निराला का परिवार मूलत: बैसवाडा उन्नाव के गढागोला का निवासी था। निराला ने कोलकाता में रामकृष्ण मिशन के पत्र समन्वय का संपादन किया और रामकृष्ण साहित्य का बांग्ला से हिंदी में अनुवाद किया। वर्तमान में उपलब्ध मिशन के साहित्य के बडे अंश के अनुवादक निराला ही हैं। कालांतर में निराला तीन वर्ष लखनऊ में मतवाला के संपादक मंडल में रहे बाद में सुधा पत्रिका में संपादकीय लिखने लगे। मगर निराला के फक्कड और अक्खड स्वभाव को कहीं का काम रास नहीं आया।

आखिरकार निराला आजादी से पहले लखनऊ छोडकर इलाहाबाद आ गए। आरंभ में वह महादेवी वर्मा की साहित्यकार संसद में रहे। तामसी भोजन के शौकीन निराला ने साहित्यकार संसद को त्याग दिया। निराला वहां से इलाहाबाद के दारागंज आ गए जहां वे मसूरियादीन पंडा, घनश्याम घाटिया, चंद्रकांता त्रिपाठी और श्रीनारायण चतुर्वेदी के मकानों में रहे मगर कहीं भी उनका सामंजस्य नहीं बन सका। निराला के फकीराना स्वभाव को दारागंज मिजाज इतना भाया कि वे कमलाशंकर के संरक्षण में स्थायी अतिथि के रूप में रहने लगे। जहां वे अंत समय 1961 तक रहे।

कमलाशंकर स्वयं वैद्य अम्बिका प्रसाद अवस्थी के मकान में किरायेदार थे। सूत्र बताते हैं कि निराला का कुछ सामान आज भी दारागंज कोतवाली में रखा हुआ है क्योंकि किरायेदार किसी को अपने यहां किराये पर नहीं रख सकता।

निराला को जानने वालों से जब निराला के अनगढ और फकीर व्यक्तित्व के बारे में जानने का प्रयास किया गया तो वैद्य अंबिका प्रसाद अवस्थी स्मृतियों में लौटते हुए बताते हैं कि एक बार मैंने पूछा आप कविता कैसे लिख लेते हैं तो निराला काफी देर तक गली में टहलते रहे और फिर पास बुलाकर कहा कि कविता क्रोध, प्रेम और रोग की तरह ही अंतर्मन से बाहर आती हैं।

निराला के करीबी लोगों में से एक 94 वर्षीय रंगकर्मी व इलाहाबाद आकाशवाणी की कलाकार चंद्रकांता त्रिपाठी ने बताया लोक संगीत के शौकीन निराला बडे ही भावुक व्यक्ति थे। वह तोडती पत्थर की श्रमिक महिला बिंब मात्र नहीं थी बल्कि निराला उसे खुद खाना देने गए थे।

वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार नरेश मिश्र ने बताया कि साढे छह फुट की ऊंचाई, धवल बाल और अधखिचडी लंबी दाढी और विराट व्यक्तित्व वाले निराला की तुलना जूलियस सीजर या किसी ग्रीक योद्धा से की जा सकती है।

साहित्यकार गोपेश्वर गोपेश से जुडा एक किस्सा मिश्र ने बताया कि एक दफा गोपेश निराला से मिलने पहुंचे। इत्तेफाक से निराला पेडे खाते हुए मिल गए। निराला ने गोपेश को भी पेडे खाने को दिए। चार पेडे खाने के बाद गोपेश और पेडे नहीं खा सके। निराला ने कहा, गोपेश चंदवरदाई का नाम सुना है ना। जो कलम से पृथ्वीराज रासो लिखता था और रणभूमि में युद्ध जीतता था और आज के साहित्यकार कितने सुकुमार हैं जो कुछ पेडे भी नहीं खा सकते। गोपेश मौन निराला को ताकते रह गए।

उन्होंने बताया कि फिल्म अभिनेता पृथ्वीराज कपूर से मिलने के बाद निराला के मुख से अकस्मात निकला आज मिला है मुझे कोई जोडीदार। एक बार एक शोधार्थी निराला के पास आया और पूछा छायावाद क्या है तो निराला उसे लेकर गंगा के घाट पर पहुंच गए। और कभी गंगा स्नान नहीं करने वाले निराला गंगा में उतर गए। छात्र को भी अंदर बुला लिया और पूछा आया समझ में छायावाद। नकारने पर सिर पकडकर गंगा में डुबो दिया और पूछा अब समझ में आया छायावाद छात्र ने फिर मना किया तो निराला ने कहा जा तुझे कभी समझ नहीं आएगा क्या होता है छायावाद।