फर्क

पति के जन्मदिन पर पत्नी उन्हें तोहफा देती थी। वहीं पति भी पत्नी के जन्मदिन पर उसे तोहफा दिया करते थे। पत्नी गृहिणी थी। जाहिर था कि वह पति से ही पैसे लेकर अपनी पसंद के तोहफे उन्हें देती थी। तोहफे देते वक्त उसके मुंह से अनायास निकलता, लीजिए, मेरी तरफ से तोहफा!

पति सोचते, पत्नी मेरे ही पैसे से मुझे मेरे जन्मदिन पर तोहफे देती है तो उसे अपना क्यों बता देती है। एक बार पति के जन्मदिन पर पत्नी ने एक शर्ट पति को प्रेजेंट की और कहा, मेरी ओर से इसे कबूल कीजिए।

पति ने कहा, मैं तुम्हें तोहफा दूं या तुम मुझे तोहफा दो, बात तो एक ही है क्योंकि दोनों तोहफों में पैसा मेरा ही लगता है। फिर दोनों में फर्क क्या है?

पत्नी को बहुत बुरा लगा। वह पति के मन में छुपे भाव को ताड गई। उसने संयम दिखाते हुए कहा, तुम्हारे और मेरे तोहफे में स्वामित्व के लिहाज से कोई फर्क नहीं है।

मगर इस लिहाज से फर्क जरूर है कि जहां तुम्हारे तोहफे में पुरुषजन्य दर्प झलकता है वहीं मेरे तोहफे में प्रेम और विनम्रता होती है। ऐसा बेबाक जवाब सुनकर पति महोदय सकपका गए।

[ज्ञानदेव मुकेश]

शादी की दास्तान

अभी शादी का पहला ही साल था,
खुशी के मारे मेरा बुरा हाल था,
खुशियाँ कुछ यूँ उमड़ रहीं थी,
की संभाले नही संभल रही थी,

सुबह सुबह मैडम का चाय ले कर आना
थोड़ा शरमाते हुए हमे नींद से जगाना,
वो प्यार भरा हाथ हमारे बालों में फिरना,
मुस्कुराते हुए कहना की डार्लिंग चाय तो पी लो,
जल्दी से रेडी हो जाओ, आप को ऑफिस भी है जाना.

घरवाली भगवन का रूप ले कर आई थी,
दिल और दिमाग पर पूरी तरह छाई थी,
साँस भी लेते थे तो नाम उसी का होता था,
इक पल भी दूर जीना दुश्वार होता था.

*5 साल बाद*

सुबह सुबह मैडम का चाय ले कर आना,
टेबल पर रख कर ज़ोर से चिल्लाना,
आज ऑफिस जाओ तो मुन्ना को स्कूल छोड़ते हुए जाना.

एक बार फिर वोही आवाज़ आई,
क्या बात है अभी तक छोड़ी नही चारपाई,
अगर मुन्ना लेट हो गया तो देख लेना,
मुन्ना की टीचर्स को फिर ख़ुद ही संभाल लेना.

न जाने घरवाली कैसा रूप ले कर आई थी,
दिल और दिमाग पर काली घटा छाई थी,
साँस भी लेते है तो उनी का ख्याल होता है,
हर समय ज़हन में एक ही सवाल होता है,
क्या कभी वो दिन लौट के आएंगे,
हम एक बार फिर कुवारें बन पाएंगे.