तुम जो हो, परमात्मा तुम्हे वैसा ही स्वीकार करता है, अन्यथा तुम होते ही नही तुम जैसे हो, परमात्मा तुम्हे वैसा ही स्वीकार करता है, अन्यथा वह तुम्हे बनता ही नही, वह दोहराता नही, पुनरुक्ती नही करता बुध कितने ही प्यारे हों , फिर भी दुबारा नही बनता, दुबारा तो बनाते ही वे कारीगर हैं, जिनकी प्रतिभा कम है कि नए को नही खोज पाते परमात्मा प्रतैक को अनूठा ओर नया बनाता है एक - एक को अद्वितीय बनाता है, राम कितने ही प्यारे हों, लकिन दुबारा ? ओर सोचो, अगर बहुत राम पैदा होने लगे तो बहुत बेमानी हो जायेगी , उबाने वाले भी हो जायेंगे और अभी राम के दर्शन कि इच्छा होती है, फिर उनसे भागने कि इच्छा होगी बस राम एक काफी हैं एक से जयादा मैं बात बासी हो जाती है, परमात्मा बासपन पसंद नही करता ।
तो तुम्हें इसलिये पैदा नही किया है कि तुम राम बन जाओ, कि तुम कृ़षण बन जाओ, कि तुम बुध बन जाओ तुम्हे पैदा किया किया है कुछ जो तुम्ही बन सकते हो और कोई भी नही बन सकता है ना पहले कोई बन सकता था, ना कोई बाद मैं बन सकेगा अगर तुम चूक जाते हो, तो अस्तित्त्व से वह घड़ी चूक जायेगी, वह तुम्ही बन सकते थे, तुम्हारे अस्तित्त्व कोई और उस नियति को नही प सकता था
छोड़ दो वो ख्याल कि तुम्हे कुछ और होना है, तुम्हे तो सिर्फ एक ही ख्याल होना चाहिऐ कि तुम्हे परमात्मा ने क्या बनाया है, उसे तुम्हे जानना है होना भी नही, वह तुम हो एक ही ख्याल रखो कि तुम कोई आदशॅ नही चाहिऐ, कोई तुम्हारे लिए ब्लू- प्रिंट कि जरूरत नही है कि इस भांति तुम हो जाओ
अध्यात्म कि खोज आदर्श कि खोज नही, अध्यात्म कि खोज तुम्हारे भीतर जो मौजूद ही है , उसका आविष्कार है, उसको उघाद लेना है।
मह्त्वाकांक्षा रुप:-
दूसरे जैसे होने कि आकंशा , एक
दूसरे से आगे होने कि आकंशा, दो
मह्त्वाकांक्षा का दूसरा अर्थ है, सदा यह फिक्र लगी रहती है कि पडोसी से मेरा मकान बड़ा कैसे हो जाये? कि पडोसी से मेरी इज़्ज़त ज्यादा कैसी हो जाय? कि पडोसी से मैं आगे कैसे निकल जाऊं? किसी ना किसी की तुलना मैं अपने को सोच रहें हैं, आपने अपने आप को सम्मान ही नही दिया, आप अपना ही अपमान कर रहे हैं, क्योंकि न पडोसी आप जैसा है, ओर ना आप पडोसी जैसा, दोनो कि कोई तुलना नही है, सब तुलना भ्रांत ओर गलत है, ओर आपको दूसरे से आगे होने के लिए नही भेजा गया है आपको तो अपने ही जैसा होने के लिए भेजा गया है, ओर दूसरे से आगे हो कर भी कया होगा? क्योंकि आप फिर पाएंगे कि कोई उसके भी आगे है इस दुनिया मैं कोई कभी नही पाता एसी जगह, जहाँ उससे आगे कोई न हो
ओशो - साधना सूत्र
2 comments:
August 2, 2007 at 2:21 PM
अति उत्तम एवं उमदा. बधाई.
आपका विश्लेषणात्मक दृष्टिकोंण काबिलेतारीफ़ है
“भोजन तो जुटाया जा सकेगा क्योंकि अभी भोजन के स्त्रोत बहुत हैं और आगे भी रहेगें लेकिन आदमी की भीड बढने के साथ क्या आदमी की आत्मा खो तो नहीं जायेगी। पहली बात ध्यान मे रखें कि जीवन एक अवकाश चाहता है। जंगल मे जानवर मुक्त है, मीलों के दायरे में घूमता है, अगर पचास बन्दरों को एक कमरे में बन्द कर दें तो उनका पागल होना शुरु हो जायेगा। प्रत्येक बन्दर को एक लिविग स्पेस चाहिये,खुली जगह चाहिये , जहां वह जी सके। …………………….बढती हुई भीड एक-एक व्यक्ति पर चारों तरफ़ से अनजाना दबाब डाल रही है, भले ही हम उन दबाबों को देख न पायें। अगर यह भीड बढती चली जाती है तो मनुष्य के विक्षिप्त (neurotic) हो जाने का डर है।” ओशो
August 4, 2007 at 11:46 AM
श्रीवासतवा जी धन्यबाद |
जिजीविषा कभी ख़त्म नही होगी, परंतु इसे कम तो किया जा सकता है.
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