मेरी समझ में नहीं आता कि मैं तुम्हें क्या कहूं
लड़की, भाभी या मां?
क्योंकि पहली बार तुम्हें उस समय देखा
जब मां ने मुझे भेजा था
भइया के लिए लड़की देखने
तब तुम लगी थीं एक अच्छी लड़की
दूसरी बार उस समय देखा
जब भइया के साथ विदा होकर
घर आई थीं तुम
तब एक अच्छी सी भाभी नजर आई थीं
आज देख रही हूं, तीसरी बार
जब तुमने एक बेटी को दिया है जन्म
मां का स्वरूप ग्रहण किया है
देख रही हूं तुम्हारी दृष्टि में
मुझमें और तुम्हारी बेटी में तुम्हें
नजर नहीं आ रहा है कोई अंतर
इसीलिए आज तुम्हारे लिए
मां का संबोधन मुझे बहुत भा रहा है
लगता है मुझे कि यह सम्बोधन
आज तुम्हारे लिए सबसे उपयुक्त है, सही है
क्योंकि आज मेरे पास सब कुछ है
लेकिन मां नहीं है
और शायद इसीलिए
मां ने पहली बार मुझे भेजा था
तुम्हें देखने के लिए।
- प्रज्ञा द्विवेदी
3 comments:
February 15, 2008 at 11:35 AM
अच्छी कविता। भीतर कुछ छूती हुई सी।
July 21, 2008 at 12:40 PM
This is a nice poem. simple day to day feelings but the way you felt is remarkable. In the present days in India this type of feelingsful poetry is required and off course in Hindi language. Because when these days all the sas bahu type serials are destrying the faith and trust among the women relationships in a family .. here in your this poety you felt the reality of Ladki, Bhabhi and Maa phase of a Girl. I am giving you my BADHAAI for it. keep writing.
July 26, 2008 at 11:12 AM
सही कहा उत्पल जी आपने, आज जिस तरह से सास-बहु सीरिअल्स ने इंडियन समाज की मानसिकता बदल दी है, आज हर घर से हालत बदलते जा रहे हैं | सब जानते हैं की घर का माहौल बदल रहा है फिर भी सब उसी और भाग रहे हैं |
जरूरत है हम लोग आने वाली पीढी को कुछ नया दें, ताकि उनका आने वाला कल सही हो |
प्रभु से यही बिनती है की हे प्रभु इन परिवार मैं बड़ी महिलाओं को कुछ गान दें कुछ अच्छी चीजें देखें और अपने bachoon को सही ग्यान दें..
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